गुरुवार, 5 नवंबर 2009

काफिला क्यों लुटा

तू इधर - उधर की बात न कर

ये बता कि काफिला क्यों लुटा ?

मुझे रहजनों से गिला नहीं,

तेरी रहबरी का सवाल है।

मैं तुझे प्यार करूं भी तो निभाऊं कैसे ?

मंगलवार, 25 अगस्त 2009

पता नही क्यों

शुभु,
ये मेरी त्रासदी रही है कि जब भी मैं कुछ हुलस के साथ करती हूँ , जिसके लिए करती हूँ , उस तक नहीं पहुँचता, जिस तक उसे जाना था, जिसका पावना था। २३ तारीख को मैंने तुम्हें एक चिठ्ठी लिखी थी। तुम तक नहीं पहुँची । पता नहीं क्यों ऐसा ही होता है , अक्सर। तुमने सागर का जिक्र किया था----अब बताओ। सोचो तो जरा, वो कितनी पटरियों से गुजरे और मैं ? जब मुझ से गुजरते थे तब वो मुझे खैरात नही देते थे क्या ? और जिस दिन की तुम बात कर रही हो कौन सी ट्रेन गुज़री और मैं कितना कांपी--- तुम्हें ही नहीं , तुम्हारे सागर को भी पता हैं । मैंने उनकी दी हर चीज को हमेशा किस ढंग से ग्रहण किया--- उनसे बेहतर तो मैं भी नहीं जानती---और वो छोटे बच्चों की तरह से तकादा कर सकते हैं। वे कहते हैं मैंने उन्हें हाशिये पर डाल दिया है। तो फिर कौन हैं मेरे मुख्य पृष्ठ पर ? तुम हो नहीं , राहुल है नही---फिर कौन ? राहुल मेरी मजबूरी हैं, तुम अधबना सपना। सागर के बिना मैं कुछ नहीं हूँ । मैं उन्हें कभी यकीन नहीं दिला सकती । चाहती भी नहीं। ये मेरा सच है। उनका वो जाने। वक्त तो मैं तुम्हें भी नहीं देती--- और राहुल के सामने दूँगी भी नहीं। मेरी प्राथमिकता राहुल हैं। सागर मेरा मैं और तुम मेरी इच्छा। ये बात समझ लेना प्राथमिकता कोई ब्यक्ति कभी नहीं होता । मैंने तो सागर से कभी दावा नहीं किया---ये मेरा वक्त है--- ये मेरा पावना---! किस से नहीं लड़ी मैं ? किसे नहीं रुलाया ? कितना नहीं रोई ख़ुद ? लेकिन सागर से मुझे कभी शिकायत रही तो हमेशा उनकी डिग्निटी को लेकर। लेकिन सागर किसी के सामने मेरा मान नहीं रखते। तुम्हारे सामने भी मुझे ही रुसवा करते हैं। जरा पूछो कि अभी किस बात पर नाराज हैं ? मुझे पता है वजह भूल चुके होंगे। ----और अब उनके पास कोई नया बहाना तैयार होगा। तुमने पूछा था प्यार क्या होता है तो ज्यादा मैं जानती नहीं लेकिन जितना जानती हूँ उसका लब्बो-लुआब सागर है। तुम भी जानती हो और सागर भी कि मुझे राहुल से प्यार नहीं। ग़लत बात है लेकिन साथ ही सच भी। और इसमे राहुल की या मेरी कोई गलती नहीं। उनका पहला प्यार लवली है । वो उसके अलावा किसी को प्यार नहीं कर सकते तो मैं सागर के अलावा किसी से कैसे प्यार कर सकती हूँ। सागर से ये गलती जरुर हुई है कि वे सुपात्र नहीं चुन पाए। सच कह रही हूँ --- मैंने बहुत कोशिश की थी कि उनके मनमाफिक बन सकूं। लेकिन फ़िर वही--- कोई ख्वाव पूरा क्यों हो ? मुझ में इतनी शिद्दत किसी बात के लिए नहीं रही।
कैरिअर ,शादी , जिंदगी के सारे अहम् फैसले उनकी मर्जी के। फिर भी उन्हें मुझ से बहुत शिकायतें हैं। मैं सच्ची शर्मिंदा हूँ ---- समझ ही नही आता गलती कहाँ हो गयी ? नहीं जानती।
- ममा

शनिवार, 22 अगस्त 2009

नहीं पता

जीजी की शादी की बात चल रही थी। उनकी शादी के कुछ दृश्य मुझे याद हैं , जीजी की शादी में केटरिंग का काम मोदक मामा देख रहे थे। उनके सजाये सलाद ऐसे अद्भुत थे कि बस पूछो ही मत--- लौकी की मछली , प्याज के फूल , मूली की लड़की , कद्दू का रथ और भी जाने क्या क्या ? बारात मैं गावं के लोग ज्यादा थे ----- वे हैरान थे कि ये चीजें देखने के लिए थी या खाने के लिए । जीजी खुराना भाईसाहब के बाहर वाले कमरे में तैयार हुई थी। उन्होंने आशा भाभी की सारी पहनी थी--- हरी और लाल बनारसी ब्रासो की साडी थी। वो मुझे बहुत पसंद थी। मैं कहती थी मैं भी अपनी शादी मैं यही सारी पहनूगी जीजी बहुत सुन्दर लग रही थी। ये 1978 की घटना है तब मैं मात्र 5 साल की थी । उस वक्त के हिसाब से शादी बहुत शानदार हुई थी। जीजाजी के फूफाजी जो शहर के बडे नामी वकील थे, कहते थे कि हम नही जानते थे कि एक मास्टर भी इतनी अच्छी शादी कर सकता है। पापा डिग्री कालेज में प्राध्यापक थे। सच बताऊ तो ये क्रेडिट मम्मी का था , सुबह मैं जिद पर अड़ गई कि मैं तो जीजी के साथ जाउंगी । फिर मुझे जीजी को दी जा रही चीजो में से कुछ दे के बहला दिया गया .शादी के बाद मैं जीजी के घर चली जाती और जीजी जीजाजी के बीच में सो जाती थी जीजी मुझे सुलाने के चक्कर में कई बार जल्दी सो जाती और फ़िर शायद डांट खाती थी मुझे । घर वापस भेज दिया गया अब जब जीजी घर आई मैं बुक्का फाड़ के रोने लगी कि मैं जीजी के संग जाउगी--- सब ने समझाया कि तुम जाती हो तो जीजाजी गुस्सा हो जाते है। तुम उनके संग सोती हो कभी पेट में दर्द कभी नींद जीजाजी जीजी से गुस्सा होते है---- तो मैंने जीजी से कहा , जीजी बस तुम मुझे ले चलो मैं तुम्हारे संग नही सोऊँगी ---मैं दिन्नु जीजाजी के संग सो जाउंगी तब तो सब खूब हँसे ही आगे भी कभी कभी ये बात करके लोग हंस लेते है । मेरी शादी के वक्त भी तो ऐसा ही हुआ बस पात्र बदल गए ---- शादी मेरी थी, और गुड्डो जिद कर रही थी । इतिहास ख़ुद को हमेशा दोहराता है। यही उसकी नियति है । उनकी ससुराल के तीन कमरे पक्के थे ----पत्थर , आंगन और एक लंबा कच्चा कमरा जिसमे भूसा भरा रहता था--- हम उसमे कच्चे आम दाल देते थे जो तीन दिन में पक जाते थे ।

मंगलवार, 18 अगस्त 2009

यादों में बचपन

शिशिर के घर के आगे योगेश का घर था उसके पापा शहर के बडे सेठ थे मैं जब उस के घर जाती थी उसे बुलाने ,अक्सर उसकी बहन मिलती थी चुन्नी दी ,उसकी मम्मी बहुत कम मिलती थी ,पूछो तो पता लगता वो मेहदी घाटमपुर गयी हे जब योगेश रिक्शे में नही होता तो हमारी बातो का विषय उसकी मम्मी होती जो किसी भूत से परेशान थी .हम डर के मारे उनके घर कुछ नही खाते थे .लेकिन जाने क्यों योगेश कि मुझसे खूब दोस्ती थी । हमारी एक परिचित सिम्मी दी अक्सर मेरी शादी योगेश से करवाने कि बात करती थी तब मैं कक्षा तृतीय में पढ़ती थी ।
अरे ! जीजी की शादी तो भूल ही गयी! कुछ-कुछ याद है। तब पांच साल की ही थी।तिलक के एकदिन पहले की बात है। मम्मी बहुत परेशान थी। वे मुझे लेकर पीडब्लूडी गयी। वहां मेरे मौसाजी रहते थे हमारी असली मौसी मर चुकी थी फिर भी उनके यहाँ आना जाना था ।मम्मी ने उन से कुछ पैसे देने कि बात कही उन्होंने माँ को मना कर दिया मम्मी रो पड़ी और नाराज हो कर चच्चा जी कि समाधि पर गई। चच्चा जी हमारे गुरु जी हे। मम्मी बताती थी कि मेरे पैदा होने पर उन्होंने आर्शीवाद के रूप में एक रुपया माँ को दिया था मम्मी कहतीथी कि उस रूपये में बडी बरकत थी तब से माँ का बक्सा कभी खाली नही हुआ ।पिछली 8 अक्टूबर को मम्मी के चले जाने के बाद मैंने माँ का सारा सामान खोज लिया लेकिन वो रे रूपया कही नही मिला शायद बरकत माँ के साथ ही चली गयी.

कुछ कहती क्यों नही

शुभो तुम्हारी सारी शिकायते ,नाराजगी मुझसे है क्या सागर हर बार सही होते है ,?तुम उन्हें कुछ क्यों नही कहती ,मुझसे तो वो इतने बेजार हे कि मेरी बात तक सुनना नही चाहते .जिन बातो को वे हमेशा नजरंदाज करते थे ,अब उन्ही बातों को लेकर मुझे सलीब पर टांग देते हैं .हर बार मुझे दोषी बना देते है क्या मैं इतनी बुरी हूं.

शनिवार, 15 अगस्त 2009

दाखिला

बडे भइया शिशु मन्दिर ले दकिले के लिए वहन दो ही अच्छे स्कूल थे एक मिशन ,एक शिशु मन्दिर .पापा आर .एस.एस के सक्रिय कार्यकर्ता थे सो शिशु मन्दिर ही मेरा स्कूल हो सकता था .बडे भइया को मेरी जन्मतिथि नही मालूम थी इसलिए वो बदल गई और मैंने जनवरी की जगह जुलाई में जन्म लिया एक पुनर्जन्म .वो संस्कृति अलग थी ,भइया-बहन ,शिशु सभा ,उत्तिष्ठ -उपविष ,लघुशंका ,दीर्धशंका आदि-आदि । जीजी मुझे तैयार कर के स्कूल भेजती स्किर्ट की प्लेट ऐसी जैसे ब्लड की धार .तब बहुत प्यारी लगती थी मैं साधना कट बाल , साफ-सुथरी ड्रेस ,पिन लगा हुआ रुमाल ,मैं रिक्शे से जाती थी रिक्शे वालें भाईसाब का नाम अल्लारक्खा था बहुत अच्छे थे वो किसी भइया -बहन से गुस्सा नही होते थे .मुझे लेने के बाद हम स्टेशन की तरफ़ जाते थे वह से आते थे प्रेरणा ,प्रसन्न और उनके चचेरे भाई आशीस और शिशिर.पता नही क्यो शिशिर की मम्मी उसे रोज रुला कर क्यो भेजती थी ,नन्हा प्यारा सा लड़का जार -जार रोता हुआ आता था और मेरे पास बैठ जाता था .मैं घर में सबसे छोटी थी सो मुझे बड़ी बनने का बड़ा शौक था .आब तो वही रोने वाला लड़का शिशिर डॉक्टर बन गया .उसने मुंबई से पैथोलोजी में ऍम .डी। की डिग्री ली है .मैं उसे जानती हू लेकिन शायद वो मुझे नही पहचानता